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भूख का रावण


#प्रतियोगिता हेतु

दिनाॅ॑क - 9/12/21



                            भूख का रावण



"कितनी बार कहा है कि अजनबियों से बातें नहीं करते हैं। पर तू है कि मानती ही नहीं। पता नहीं कब सुधरेगी!" मानवी को खींचकर लाती हुई कुसुम तेज आवाज में बोली।

"ओफ्फो माॅम! आप तो बेवजह में डरती हो। अब बच्ची नहीं हूॅ॑ मैं!" मानवी तिलमिला कर अपने हाथ को छुड़ाते हुए बोली।

"बच्ची नहीं है, इसी बात का तो डर है! कुछ समझा भी नहीं सकती तुझे!" कुसुम ने लाचारी भरे स्वर में कहा।

"मुझे पता है क्या समझाना चाहती हो आप! इसलिए कह रही हूॅ॑ कि बच्ची नहीं हूॅ॑ मैं।" मानवी ने गंभीरता से कहा।

मानवी की बात सुनकर कुसुम स्तब्ध रह गई और ऑ॑खें फाड़े उसे देखने लगी। उसे अपना हलक़ सूखता हुआ सा लगा। 

"क्या... क्या जानती है?" सहमे हुए स्वर में कुसुम ने मानवी से पूछा।

उसके चेहरे के उड़े हुए रंग को देखकर मानवी मुस्कुराई। उसने अपनी माॅ॑ के कंधे पर हाथ रखा और कहा, "14 साल की हो गई हूॅ॑ माॅम! आप क्या समझाना चाहती हो समझती हूॅ॑, इसलिए अपना ख्याल रखना भी जानती हूॅ॑। अगर डर कर जिऊॅ॑गी, तो अपने ख्वाब कैसे पूरी करूंगी?"

मानवी की बात सुनकर कुसुम सकते में आ गई, "आज के समय के बच्चे कितनी आसानी से सब जान जाते हैं और एक हम थे कि इस उम्र में भी गुड्डे-गुड़ियों की शादी और इंसानों की शादी में फर्क नहीं कर पाते थे।"

"वो तो मुझसे हाॅस्पिटल का रास्ता पूछ रहा था और मुझे उससे तो किसी प्रकार का डर महसूस नहीं हुआ। किसी की जरूरत में भी डर महसूस करना कहाॅ॑ तक ठीक है?" मानवी ने कुसुम से सवाल किया। कुसुम ने उसके सवाल का कोई जवाब नहीं दिया।

"क्या आपके साथ ऐसा कभी नहीं हुआ है कि आपने किसी ऐसे अजनबी से बात की हो, जिससे बात करने में आपको डर ना लगा हो या फिर आपके लिए अजनबी शब्द का मतलब ही डर है?" मानवी ने मुस्कुराते हुए अगला सवाल किया।

मानवी की बात सुनकर कुसुम ने खोई हुई ऑ॑खों से उसकी ओर देखा, मगर कहा कुछ नहीं। मानवी की बातों ने उसकी यादों के एक झरोखे को खोल दिया था। उसको इस तरह शांत देखकर मानवी वहाॅ॑ से उठकर चली गई, मगर कुसुम अभी भी अपनी जगह पर बैठी हुई थी। अचानक उसके मन का पंछी यादों की गलियों में उड़ने लगा और पहुॅ॑च गया उस समय में, जब वो 12 साल की थी। पर उस समय के बच्चों की दुनिया आज के बच्चों की दुनिया की तरह अलग-अलग रंगों से भरी हुई नहीं थी। उस समय तो ज्यादातर चीजें पानी की तरह निर्मल और साफ हुआ करती थी। लोगों के हृदय भी।

"ओ भैयाऽऽऽऽ!!" और इन शब्दों के साथ कुसुम पहुॅ॑च गई अपनी यादों के उस हिस्से में, जिसे उसने कभी भी नहीं छेड़ा था।

"आ गई गुड़िया! क्या सुख मिलता है तुझे सुबह-सुबह यहाॅ॑ आकर!" उसने मुस्कुराते हुए कहा।

"बस आपको इस तरह काम करते देखकर अच्छा लगता है।" यह कहकर वह उसके थोड़ा करीब जाकर बैठ गई, जहाॅ॑ से उसके काम को आसानी से देख सके।

वो एक कलाकार था, जो दशहरे में रावण के पुतले बनाया करता था। कुसुम ने उस समय नई-नई साइकिल ली थी, जिसे चलाने के लिए वो सुबह अपने घर के पास वाले बड़े मैदान में आया करती थी। मगर एक दिन उसने उस मैदान में ढेर सारे सामान को रखा देखा। उन सामानों के कारण उसे साइकिल चलाने में असुविधा हो रही थी, जिससे उसे बड़ा गुस्सा आ रहा था। आसपास के लोगों से उसे पता चला कि दशहरा आने वाला है तो रावण का पुतला बनाने के लिए एक कारीगर वहाॅ॑ आने वाला था। कुसुम तो गुस्से में थी, इसलिए उसने सोचा कि अगली सुबह ही वहाॅ॑ जाकर उस कारीगर को वहाॅ॑ से कहीं और जाने को कहेगी और फिर इसी सोच के साथ वो अगली सुबह वहाॅ॑ पहुॅ॑च गई।

थोड़े तेवर के साथ पहुॅ॑ची कुसुम वहाॅ॑ एक गहरे रंग के दुबले-पतले आदमी को देखकर रूक गई। वो वहाॅ॑ बैठा बड़ी तन्मयता से अपना काम कर रहा था। उसके आसपास बाॅ॑स की लंबी-लंबी खपच्चियाॅ॑ बिखरी हुई थीं, जिसे वो कुशलता से विभिन्न कोणों में मोड़कर आकार दे रहा था। उसे इस तरह काम करता हुआ देखकर कुसुम विस्मय से भर गई। उसे उसके काम करने का तरीका रोचक लगने लगा। कुछ सोचकर वो आगे बढ़ी और उसके पास पहुॅ॑च गई। आहट सुनकर उस आदमी ने सिर उठाकर देखा। प्यारी सी कुसुम को देखते ही उसके होंठों पर एक निर्मल मुस्कान फैल गई।

"यहाॅ॑ क्या कर रही हो गुड़िया?"

"आप ही.... रावण बनाओगे?"

"हाॅ॑!"

"इन सब से!" आसपास बिखरे सामानों की ओर इशारा करते हुए कुसुम ने पूछा।

"हाॅ॑!"

"वो कैसे?"

"अब ये कैसे बताऊॅ॑ गुड़िया। देखोगी तो जान जाओगी!" उसने मुस्कुरा कर कहा।

उसकी बात सुनकर कुसुम चमक गई, "तो क्या मैं रोज यहाॅ॑ आकर ये सब देख सकती हूॅ॑।"

"हाॅ॑, क्यों नहीं!" उसने एक बार फिर मुस्कुरा कर कहा।

अब तो ये रोज की बात हो गई। रोज सुबह कुसुम साइकिल चलाने के बहाने वहाॅ॑ जाने लगी और उसे काम करते हुए देखती रहती। उसे बड़ा ही आश्चर्य हो रहा था कि कैसे इतने सारे बिखरे सामानों को खूबसूरती से जोड़कर वो उसे किस तरह एक आकार दे रहा था। हरदिन के साथ उसकी मेहनत एक नया रूप लेती जा रही थी। 

इसी तरह दिन गुजर गए और वो दिन भी आया, जब वो रावण पूरी तरह बन गया। कुछ लोग वहाॅ॑ पहुॅ॑चे हुए थे, जो उस पुतले को सीधा खड़ा कर रहे थे और वो चुपचाप खड़ा अपनी मेहनत को देख रहा था।

"अरे वाह! इतना बड़ा रावण! जमीन में तो पता ही नहीं चल रहा था। ये जब जलेगा तो कितना मजा आएगा। है ना!" पीछे मुड़ते हुए कुसुम ने कहा। वो चुपचाप खड़ा था और उस पुतले को निहार रहा था। शायद एक क़तरा सा चमका था उसकी ऑ॑खों में। कुसुम ने एक बार उसे देखा और एक बार उस पुतले को, फिर वो उसके पास गई और कहा,

"आपको बुरा लग रहा है ना भैया! आपने इतने दिनों तक मेहनत की और कुछ ही देर में लोग इसे आग लगाकर जला देंगे।" कुसुम ने समझदारी दिखाते हुए कहा।

"कितनी भी मेहनत लगी हो गुड़िया। पर जब ये जलेगा... मेरे परिवार के भूख का रावण‌‌‌ भी जलेगा। ये तो खुश होने वाली बात है। हालांकि सच कहूॅ॑.... मैं कभी रावण-दहन में नहीं जाता हूॅ॑, ताकि ये तकलीफ़ ना ही हो।" उसने कहा।

"क्या मतलब!"

"अभी छोटी हो। जब बड़ी होगी तब इसका मतलब खुद समझ जाओगी।" उसने प्यार से कुसुम को देखते हुए कहा।

कुसुम असमंजस से उसे देखती रही। अगले दिन वो वहाॅ॑ से चला गया। एक बार फिर वो मैदान खाली हो गया। कुसुम ने सोचा कि अगले साल वो फिर उससे मिलेगी और उसकी बातों का मतलब पूछेगी, पर रावण-दहन का स्थान बदलने से यह मौका फिर कभी नहीं आया और धीरे-धीरे ये याद उसके दिमाग के संदूक में कहीं दब गई। आज मानवी के सवाल ने उसे एक बार फिर उस घटना की याद दिला दी थी और आज जीवन के अनुभवों ने उसकी बातों का मतलब भी। शायद मानवी सही थी, हर अजनबी से खतरा हो, ये जरूरी तो नहीं। तभी घर के अंदर  टी. वी. से किसी बच्ची से हुए कुकर्म की खबर आ रही थी। एक बार फिर कुसुम के अंदर का डर उस पर हावी हो गया। रावण तो हर ओर बिखरे हुए हैं, पर कौन सा रावण आत्मा को निगल रहा है और कौन सा भूख की शक्ल में है, ये जान पाना अब शायद मुश्किल ही हो गया है।

(सच्ची घटना पर आधारित)


समाप्त


Shaba


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14 Comments

Seema Priyadarshini sahay

12-Dec-2021 11:55 PM

Nice story mam

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Barsha🖤👑

10-Dec-2021 08:28 PM

Nice ❤️

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Shaba

10-Dec-2021 10:39 PM

शुक्रिया

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Sunanda Aswal

10-Dec-2021 06:26 PM

बहुत सुंदर

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Shaba

10-Dec-2021 10:39 PM

धन्यवाद!

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